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सासनी (हाथरस) : आज के समय में हमने सभी प्रकार की सत्यता को त्यागकर व्यसनों तथा पाश्चात्य सभ्यता को अपनाकर अपने ही दुखां को बढावा दिया हैं यदि हम अपनी खोई हुई संस्कृति को पुनः संग्रहित कर ले तो निश्चित है, हमारे जीवन में कोई कष्ट आ नहीं सकता।

यह विचार आचार्य खगेन्द्र शास्त्री ने एक प्रेसवार्ता के दौरान दूरभार पर करते हुए प्रकट किए। उन्होंने बताया कि सारे व्यसन और पाश्चात्य खाना एवं सभ्यता का धारण करना ही हमारे लिए नासूर बन गया है। उन्होंने कहा कि आज कोरोना महामारी को लेकर जहां प्रधानमंत्री ने कहा है कि जहां हो वहीं रहो मगर वो गांव क्यों भाग रहे हैं, क्योंकि उन्हें भरोसा है कि गांव भूखा नहीं मरने देगा। गांव में बेकारी है लेकिन भुखमरी नहीं है। लाख विपन्नताओं के बाद भी गांव में भूख से शायद ही कोई मरता हो। शहर आवश्यकता नहीं सपने पूरा करता है । आवश्यकता के लिए अपनी मिट्टी में ही आना होता हैं । जड़े जड़े होती हैं …आज उन्हें सपने नही आवश्यकता पूर्ण करनी हैं गांव अपने बलबूते पर जिन्दा है। लेकिन शहर ज्यादा दिन अपने बूते जिन्दा नहीं रह सकते। क्योंकि न तो वो अनाज पैदा करते हैं, न पानी पैदा करते हैं। वो जो पैदा करते हैं उसे खा नहीं सकते। जब भगवान श्री राम जी को चौदह वर्ष का वनवास मिला तो वे भी गाँव से होकर ही वन की यात्रा करते थे। तुलसी दास जी की चोपाई है कि सीता लखन सहित रघुराई। गाँव निकट जब निकसही जाई।। सुनि सब बाल बृद्ध नर नारी। चलहिं तुरत गृह काजु बिसारी।। अर्थात-सीताजी ओर लक्ष्मण जी श्री रघुनाथ जी के साथ जब किसी भी गाँव के पास से निकलते है तो गाँव के बडे ,बूढे बालक स्त्री -पुरुष सब लोग अपने काम काज को छोड़ कर उनकी सेबा में लग जते है आज भी यही परपरा है जब भी गाँव मे कोई व्यक्ति बाहर से आता है तो सब गाँववाले एक साथ मिलकर उनका हाल चाल व उनकी जो सम्भव हो मदद के लिए तैयार रहते है।गाँव के स्मानित ,बड़े बुजुर्ग जो भी कहते वो हित ही कहते थे बच्चे भी अपने माता पिता बुजुर्गो व गुरुओ का सम्मान करते थे सुबह उठकर चरण स्पर्श करना अपनो के पास बैठना अच्छी शिक्षा लेना हमारी जरूरत नही थी हमारे सँस्कार थे। तुलसी दास जी ने लिखा है कि प्रातः काल उठि कै रघुनाथा। मातु पिता गुरु नावहिं माथा।। परन्तु आज इक्कीस वीं सदी के सब कुछ होते हुए भी हम न जाने कहा को गये आज इक्कीक्स वी सदी के माता पिता भी बच्चों को अपना ओर अपने बच्चों का ही पेट भरने के बारे में सिखाते है। तुलसी दास जी ने कहा है कि मातु पिता बलकन्हि बोलावहीं । उदर भरै सोइ धर्म सिखावहिं।। अर्थात माता पिता का बस यही धर्म है कैसे भी हो अपना पेट भरो।। हम तो वरदान को ही शाप समझ बेठे है। सामने पुण्य है और हम पाप समझ बेठे है।। कल तक माँ बाप् को ही दौलत समझतें थे। आज दौलत को ही माँ बाप समझ बेठे है।। हूनर सड़कों पर तमाशा करता है और, किस्मत महलों में राज करती है।। सहर की जिन्दगी में आराम ढूढ़ता हु साहब ,सुबह सुबह,उठना पड़ता है, कमाने के लिये। आराम कमाने निकला हूॅ। आराम छोड़कर।। इसी लिए सभ्यता की इक्कीसवी सदी में भी आज गाँव शहरों से श्रेष्ठ है। जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गदीपि गरियसी।। जननी ओर जन्म भूमि स्वर्ग से भी महान होती है ।। मेरा गाँव ,मेरा देश। मेरा भारत महान।

इनपुट : आविद हुसैन